POEM NO. 222
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मेरी पीड़ा
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मेरी आँखें भोली भाली
गहरी नीली काली काली
देख संसार की काला बाजारी
आँखें रोती बारी बारी
प्रेम वियोग से तो मन रोते है
आँखें रो रो कर हो गई भारी
बिना स्वार्थ जिया मै करता
कौन सहे दुःख बारी बारी
तुम हो मेरे आँखों के तारे
कहत माँ सो गई दुखियारी प्यारी
शब्द बने साखी संगी
कागज रोये साथ में मेरे
कलम रोये स्याही की बोली
एक एक आँशु आये भारी भारी
मन चंचल शीत लहर सा
सिकुड़ कर बैठा है मस्त अँधेरे में
लिख लिख कर सुना रहा है "राठौड़"
अपनी मन की पीड़ा बारी बारी
आपका शुभचिंतक
लेखक - राठौड़ साब "वैराग्य"
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10:20am, Mon 26-05-2014
(#Rathoreorg20)
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