POEM NO. 221
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गरीब का ईमान
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आँखे खोली बिछड़ा सब कुछ
बिना माँ और पा के क्या है सब कुछ
दुनियाँ का गन्दा नाला पीता रहा
बड़ा हुआ कैसे ये मुझे ना याद रहा
सीखा ना कुछ भी ना शिक्षा मिली
रोज मुझे नीत नवी मंजिल मिली
उदर पीड़ा ने क्या क्या सिखाया
मेहनत ने तो मुझे कई बार भूखा सुलाया
फिर भी कांटो पे चलता था
रोज पानी सा रास्ता बना के चलता था
बेकाबू सा मन था मेरा
काबू ना कर पाता था
एक तो उदर पीड़ा दूसरा समाज सताता था
मै गरीब सही मेरा ईमान गरीब नही है
मै भूखा नंगा सही पर मेरे ख़्वाब नग्न नही है
चल रहा हूँ उस रास्ते पे
चलता रहूँगा हमेशा
चाहे भूख से मर जाऊ
पर अपना ईमान ना बेचूंगा
आपका शुभचिंतक
लेखक - राठौड़ साब "वैराग्य"
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10:15am, Mon 26-05-2014
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