Wednesday 9 July 2014

Chudiya.. ( चूड़ियाँ...) POEM No. 176 (Chandan Rathore)


POEM NO. 176
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चूड़ियाँ
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तप-तप कर बन जाती है कांच की चूड़ियाँ
बचती बचाती बाजार में पहुंच जाती है चूड़ियाँ

आते खरीदार पसंद करते है
फिर ठुकराते है चूड़ियाँ
लाल हरी नीली पीली कई रंगो में होती है
कई टुट के गिर जाती है
और कई हाथों में सज जाती है चूड़ियाँ

जब बोलती है तो किसी को बुलाती है चूड़ियाँ
जब दो पंछियों का मिलान हो चुप-चाप सो जाती है चूड़ियाँ

छन-छन की आवाज में संगीत गाती है चूड़ियाँ
नवेली दुल्हन को सजाती है चूड़ियाँ
मन में सभी के कैसे बैठ जाती है चूड़ियाँ

खुशियों में भी खन-खनाती है चूड़ियाँ
दुःख में टुट के बिखर जाती है चूड़ियाँ

जब टुट के गिरती है या तोड़ दी जाती है चूड़ियाँ
कितना रुलाती है कितना सताती है जब छोड़ के जाती है चूड़ियाँ


आपका शुभचिंतक
लेखक -  राठौड़ साब "वैराग्य" 

1:32 PM 19/12/2013 
(#Rathoreorg20)
_▂▃▅▇█▓▒░ Don't Cry Feel More . . It's Only RATHORE . . . ░▒▓█▇▅▃▂

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