POEM NO. 200
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उसकी इज़्ज़त
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वो अपनी इज़्ज़त आबरू लिए बिस्तर पर जम्हाइयाँ ले रही थी
मै उसके पास बैठ, उसकी आबरू को तक रहा था
वो सिसक सिसक कर अपनी आहें ले रही थी
और मै सिसक सिसक कर उन आहों को पि रहा था
खो कर सारे अरमानों के पहाड़ों को, वो रो रही थी
मै उन जज्बातों को, फिर से दिलाने के लिए रो रहा था
नामी शख्स की बदनामी हजार हुई आज वो तार तार हो रही थी
उस गुमनामी जिंदगी से ये बदनाम जिंदगी मिली आज मै फिर से खो रहा था
बेखौफ हुई तार तार इज़्ज़त मेरी, मेरा शरीर उन जालिमों के हाथ लहूलुहान हो रहा था
वो सो रही आज इज़्ज़त आबरू खो कर और मै उसके पास बैठकर बस रो रहा था
बस रो रहा था....... बस रो रहा था ......
आपका शुभचिंतक
लेखक - राठौड़ साब "वैराग्य"
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03:28am, Sun 02-03-2014
(#Rathoreorg20)
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